Shaashwati

"Do Never Die, Nor Cause Death; But Resist Death to Death."

Wednesday, September 29, 2010

Swaasthya w Sadaachaar

स्वास्थ्य व सदाचार 

अस्पृश्यता का वर्जन करना अच्छा ही है, उसमें क्षति नहीं, किन्तु सदाचार को विदा न करो.  |16|
इष्टनिष्ट मुग्ध-उद्दाम मन रोग-शोक की कम ही परवाह करता है.  |17|
आनंददीप्त मन यदि शुभ-परिचारी परिपार्श्विक पाता है तो दु:स्थ या अस्वस्थ कदाचित ही होता है.  |18|
अवांछनीय रोग-प्रत्याशी यदि होना चाहते हो तो जहां-तहां जिसके-तिसके हाथों से खा सकते हो, और यदि स्वास्थ्य ही काम्य है तो सदाचारी होना ही अच्छा है.  |19|
मछली, मांस, मादक, जो सत्ता को स्वस्थ बनाये नहीं रखता है, वह आयु को कमा ही देता है--विधान के विपर्ययी परिपोषण से.  |20|
मछली-मांस खाते भी हो तो वह हमेशा नहीं खाना चाहिए एवं उनकी विषक्रिया का प्रतिषेधक भी खाना चाहिए-- जैसे दही इत्यादि, इससे उनकी दुष्टक्रिया-थोड़ी सी शमित ही होती है.  |21|
खाद्य रहना उचित है सहजपाच्य, पुष्टिकर, तृप्तिप्रद, शरीर के अनुकूल पोषक, सदाचार-संसिद्ध अर्थात जीवनीय- सात्विक, स्वादु.  |22|
आघात-अभिभूत वेदना में मुर्झाया शंकित मन व्याधि की खान है; और, वह जब वाह्यतः अपनी अनुपूरक परिस्थिति पाता है तब विकसित हो उठता है-ध्वंस का रूप धरकर मृत्यु को बुलाता है; मन को उदबुद्ध करो, व वाह्यतः उसकी अनुपूरक व्यवस्था भी करो तो रिहाई पाना सहज हो जाएगा.  |23| 
व्याधि का जनक है चिन्ता, जननी है ततपरिपोषनी परिस्थिति, जिसके माध्यम से वैधानिक विकृति पैदा होती है; निराकरण है परिस्थिति का सत्तापोषणी विन्यास, चित्त के संघात-अपसारणी व्यवस्था के माध्यम से प्रफुल्ल उद्दीपना एवं वैधानिक विकृति का निराकरनोपयोगी औषध व पथ्य .  |24|  
शरीर किन्तु तभी व्याधि की खान बन जाता है जब से विहित करणीय सबों की अवज्ञा करके, समय को लुप्त करके किसी में वृत्ति-बेहोश आलस्य प्रश्रय पाता है, और यह आलस्य ही तभी अनवरत उपच उठता है मरण-दुन्दुभि लेकर, विनाश पुकारता है--"आओ" .  |25| 
असुस्थ या अस्वस्थ के परिचर्यारत जो भी हैं, उनके द्वारा पानाहार का काम कराने मत जाओ, उनकी परिचर्या करो मगर प्रतिषेधि आचार से, संक्रमण के हाथ से बहुत हद तक रिहाई पाओगे.  |26| 
स्वयं अस्वस्थ रहकर यथासंभव स्वस्थ की सेवा करने मत जाओ, मनुष्य अपना है किन्तु रोग नहीं, वह सेवा उसे भी अस्वस्थ बना दे सकती है.  |27|
रोगी की सेवा करने में रोग की सेवा नहीं करो-- तुम्हारी चिन्ता, फ़िक्र, बुद्धि, तत्परता जिससे रोगी का रोग निरामय ही कर दे, नजर रखो वह रोग-पुष्टि न लावे.  |28|
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, शाश्वती 

Friday, September 24, 2010

Shiksha

शिक्षा
शिक्षा केवल मात्र जड़ विज्ञता ही नहीं है--बल्कि वह है तात्पर्य-सह जीवंत अनुभव, ऐसा न होने पर शिक्षा का मूल्य कहाँ है और उसका प्राण ही क्या है ?  |1| 
जानता है पर चरित्र नहीं उसे काम में लगाने की, वह विद्या में मूढ़ है.   |2| 
तुम्हारी विद्या यदि मस्तिष्क में ही मौजूद रहती है, और उसे व्यवहार में लगाना नहीं जानते, ऐसी विद्या तुम्हारी किसी काम की नहीं है.  |3|
सुनी या पढ़ी बात को यदि कार्य में मूर्त्त नहीं कर सको तो वह तुम्हारे जीवन में प्रहेलिकामय एक कथित बाबूगिरी के सिवा कुछ भी नहीं कर पाएगी, सोचकर देखो, कहाँ फायदा है.  |4|
अपनत्त्वबोध में दूसरों को स्वयं के जैसा देखना और विहितरूप से वैसा करना व चलना, व्यवहार सीखने का सूत्र ही वहाँ से है.  |5|
जिनके चलन, कथन, कर्म व ज्ञान ईश्वर या इष्ट में अर्थान्वित नहीं हो पाये हैं--वास्तव में, समन्वय से, सामंजस्य से, उनका ज्ञान जो भी क्यों न रहे, पल्लवग्राही मात्र है, विद्या बहुत दूर से उनलोगों से.  |6|
जो जितना जानते हैं, उसी जानकारी की अभिव्यक्ति के द्वारा ही उसके अनुसरण व यथाविहित आवृति से जानकारी को आयत्त किया जा सकता है, आयत्त करने का यही है सहज पथ.  |7|
शिक्षित बनो, धी की वृद्धि करो, किन्तु पेशी को वंचित करके नहीं, अपितु उसे यथाविहित शक्तिशाली करके.  |8| 
विद्या है, किन्तु वह चरित्र में मूर्त्त नहीं है--सदर्थोद्दीपना, सामंजस्य व व्यवहार में, तो उसका परिवेषण किन्तु सर्वनाशक है.  |9|
चरित्रहीन शिक्षक छात्र के जीवन के भक्षक हैं.  |10|
दाम्भिक भंड-ज्ञानी होना अच्छा नहीं, वह निरर्थक है, अनेक के लिये अपकारी भी है.  |11|
जो ज्ञान जितना ही सदनुपूरक, सार्थक-संगतिसंपन्न, समंजस है--उसमें उतना ही जौलस है और हितप्रद भी वह है उतना.  |12|
अप्रकृतिस्थ प्रणिधान भ्रांत संधित्सा का ही परिचालक है.  |13|
बने मनुष्य को फिर से तैयार नहीं किया जा सकता है, बल्कि उसके वैशिष्ट्य को उत्क्रमी करके पोषण से पुष्ट किया जा सकता है; मनुष्य तैयार करने के लिये ही चाहिए प्रजनन-परिशुद्धि.  |14| 
जो अर्जन करोगे--वैशिष्ट्यानुग होकर सत्ता को वह यदि स्पर्श करता है सार्थक-सत्त होकर-तपः-उत्सारणा में, --वह साधारणतः ही सत्ता में सत्त्व लाभ करता ही है, और वह वैसा ही जनन में संक्रामित हो जाता है साधारणतः -- वैशिष्ट्य के संगठनी आधार पर अवलंबित होकर उत्कर्ष की ओर भी चलता है वैसे, इसके विरुद्ध चलन से अपकर्ष हो जाता है अनिवार्य.  |15|

Satta Sachchidanandmay Hai

सत्ता सच्चिदानन्दमय है
 सत्ता सच्चिदानन्दमय है,
असत-निरोधी स्वतः ही, 
सच्चिदानन्द का परिपोषक है जो वही है धर्म 
धर्म मूर्त्त होता है आदर्श में 
आदर्श में दीक्षा लाती है अनुराग 
अनुराग लाता है वृत्ति-नियंत्रण 
वृत्ति-नियंत्रण लाता है धृति 
धृति लाती है सहानुभूति 
सहानुभूति लाती है संहति 
संहति से आती है शक्ति 
शक्ति लाती है संवर्द्धना ; 
और, यह धृति लाती है प्रणिधान 
प्रणिधान से ही आती है समाधि, 
और, समाधि से ही आता है कैवल्य -- 
तृष्णा का एकान्त निर्वाण 
महाचेतनसमुत्थान !
--: श्री श्री ठाकुर

Bhoomika

भूमिका 

परमप्रेममय श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र जी ने
देवघर आने के बाद ही विभिन्न विषयों पर जो वाणियाँ  दी
उनमें से ९९० वाणियाँ को संग्रह कर प्रकाशित हुआ शाश्वती  ग्रन्थ.  

उसी ग्रन्थ के अखंड संस्करण का हिंदी अनुवादित अंश 
आपके लिये प्रस्तुत है. 

जयगुरु !

Shaashwati

शाश्वती 




--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र