शिक्षा
शिक्षा केवल मात्र जड़ विज्ञता ही नहीं है--बल्कि वह है तात्पर्य-सह जीवंत अनुभव, ऐसा न होने पर शिक्षा का मूल्य कहाँ है और उसका प्राण ही क्या है ? |1|
शिक्षा केवल मात्र जड़ विज्ञता ही नहीं है--बल्कि वह है तात्पर्य-सह जीवंत अनुभव, ऐसा न होने पर शिक्षा का मूल्य कहाँ है और उसका प्राण ही क्या है ? |1|
जानता है पर चरित्र नहीं उसे काम में लगाने की, वह विद्या में मूढ़ है. |2|
तुम्हारी विद्या यदि मस्तिष्क में ही मौजूद रहती है, और उसे व्यवहार में लगाना नहीं जानते, ऐसी विद्या तुम्हारी किसी काम की नहीं है. |3|
सुनी या पढ़ी बात को यदि कार्य में मूर्त्त नहीं कर सको तो वह तुम्हारे जीवन में प्रहेलिकामय एक कथित बाबूगिरी के सिवा कुछ भी नहीं कर पाएगी, सोचकर देखो, कहाँ फायदा है. |4|
अपनत्त्वबोध में दूसरों को स्वयं के जैसा देखना और विहितरूप से वैसा करना व चलना, व्यवहार सीखने का सूत्र ही वहाँ से है. |5|
जिनके चलन, कथन, कर्म व ज्ञान ईश्वर या इष्ट में अर्थान्वित नहीं हो पाये हैं--वास्तव में, समन्वय से, सामंजस्य से, उनका ज्ञान जो भी क्यों न रहे, पल्लवग्राही मात्र है, विद्या बहुत दूर से उनलोगों से. |6|
जो जितना जानते हैं, उसी जानकारी की अभिव्यक्ति के द्वारा ही उसके अनुसरण व यथाविहित आवृति से जानकारी को आयत्त किया जा सकता है, आयत्त करने का यही है सहज पथ. |7|
शिक्षित बनो, धी की वृद्धि करो, किन्तु पेशी को वंचित करके नहीं, अपितु उसे यथाविहित शक्तिशाली करके. |8|
विद्या है, किन्तु वह चरित्र में मूर्त्त नहीं है--सदर्थोद्दीपना, सामंजस्य व व्यवहार में, तो उसका परिवेषण किन्तु सर्वनाशक है. |9|
चरित्रहीन शिक्षक छात्र के जीवन के भक्षक हैं. |10|
दाम्भिक भंड-ज्ञानी होना अच्छा नहीं, वह निरर्थक है, अनेक के लिये अपकारी भी है. |11|
जो ज्ञान जितना ही सदनुपूरक, सार्थक-संगतिसंपन्न, समंजस है--उसमें उतना ही जौलस है और हितप्रद भी वह है उतना. |12|
अप्रकृतिस्थ प्रणिधान भ्रांत संधित्सा का ही परिचालक है. |13|
बने मनुष्य को फिर से तैयार नहीं किया जा सकता है, बल्कि उसके वैशिष्ट्य को उत्क्रमी करके पोषण से पुष्ट किया जा सकता है; मनुष्य तैयार करने के लिये ही चाहिए प्रजनन-परिशुद्धि. |14|
जो अर्जन करोगे--वैशिष्ट्यानुग होकर सत्ता को वह यदि स्पर्श करता है सार्थक-सत्त होकर-तपः-उत्सारणा में, --वह साधारणतः ही सत्ता में सत्त्व लाभ करता ही है, और वह वैसा ही जनन में संक्रामित हो जाता है साधारणतः -- वैशिष्ट्य के संगठनी आधार पर अवलंबित होकर उत्कर्ष की ओर भी चलता है वैसे, इसके विरुद्ध चलन से अपकर्ष हो जाता है अनिवार्य. |15|
तुम्हारी विद्या यदि मस्तिष्क में ही मौजूद रहती है, और उसे व्यवहार में लगाना नहीं जानते, ऐसी विद्या तुम्हारी किसी काम की नहीं है. |3|
सुनी या पढ़ी बात को यदि कार्य में मूर्त्त नहीं कर सको तो वह तुम्हारे जीवन में प्रहेलिकामय एक कथित बाबूगिरी के सिवा कुछ भी नहीं कर पाएगी, सोचकर देखो, कहाँ फायदा है. |4|
अपनत्त्वबोध में दूसरों को स्वयं के जैसा देखना और विहितरूप से वैसा करना व चलना, व्यवहार सीखने का सूत्र ही वहाँ से है. |5|
जिनके चलन, कथन, कर्म व ज्ञान ईश्वर या इष्ट में अर्थान्वित नहीं हो पाये हैं--वास्तव में, समन्वय से, सामंजस्य से, उनका ज्ञान जो भी क्यों न रहे, पल्लवग्राही मात्र है, विद्या बहुत दूर से उनलोगों से. |6|
जो जितना जानते हैं, उसी जानकारी की अभिव्यक्ति के द्वारा ही उसके अनुसरण व यथाविहित आवृति से जानकारी को आयत्त किया जा सकता है, आयत्त करने का यही है सहज पथ. |7|
शिक्षित बनो, धी की वृद्धि करो, किन्तु पेशी को वंचित करके नहीं, अपितु उसे यथाविहित शक्तिशाली करके. |8|
विद्या है, किन्तु वह चरित्र में मूर्त्त नहीं है--सदर्थोद्दीपना, सामंजस्य व व्यवहार में, तो उसका परिवेषण किन्तु सर्वनाशक है. |9|
चरित्रहीन शिक्षक छात्र के जीवन के भक्षक हैं. |10|
दाम्भिक भंड-ज्ञानी होना अच्छा नहीं, वह निरर्थक है, अनेक के लिये अपकारी भी है. |11|
जो ज्ञान जितना ही सदनुपूरक, सार्थक-संगतिसंपन्न, समंजस है--उसमें उतना ही जौलस है और हितप्रद भी वह है उतना. |12|
अप्रकृतिस्थ प्रणिधान भ्रांत संधित्सा का ही परिचालक है. |13|
बने मनुष्य को फिर से तैयार नहीं किया जा सकता है, बल्कि उसके वैशिष्ट्य को उत्क्रमी करके पोषण से पुष्ट किया जा सकता है; मनुष्य तैयार करने के लिये ही चाहिए प्रजनन-परिशुद्धि. |14|
जो अर्जन करोगे--वैशिष्ट्यानुग होकर सत्ता को वह यदि स्पर्श करता है सार्थक-सत्त होकर-तपः-उत्सारणा में, --वह साधारणतः ही सत्ता में सत्त्व लाभ करता ही है, और वह वैसा ही जनन में संक्रामित हो जाता है साधारणतः -- वैशिष्ट्य के संगठनी आधार पर अवलंबित होकर उत्कर्ष की ओर भी चलता है वैसे, इसके विरुद्ध चलन से अपकर्ष हो जाता है अनिवार्य. |15|
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